रविवार, 12 जून 2016

पदोन्नति में आरक्षण के मायने !




पदोन्नति में आरक्षण के मायने !
               पिछले दिनों मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने मध्यप्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद मध्यप्रदेश राज्य कर्मचारी दो गुटों में बट गए। हालांकि राज्य सरकार पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के समर्थन में होने पर राज्य सरकार के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने भी मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के आदेश की अपील स्वीकार कर वर्ष 2002 से अब तक हुए प्रमोशन में यथास्थिति यानी कि अब प्रदेश के लगभग 30 हजार अनुसूचित जाति जनजाति के शासकीय सेवक अपने वर्तमान पदों पर कार्य करते रहेगें उन्हें रिवर्ट नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनुसूचित जाति, जनजाति के शासकीय सेवकों में थोड़ी सी खुशी जरूर देखी गई है। पर अनुसूचित जाति, जनजाति के कर्मचारी अजाक्स के बैनर तले अब सरकार से पुरजोर मांग कर रहे हैं कि सरकार पदोन्नति नियम 2016 बनाए और पदोन्नति में आरक्षण को फिर से लागू किया जाय।
                 बहरहाल मध्यप्रदेश पदोन्नति नियम 2002 असंवैधानिक होते ही राज्य के कर्मचारी दो गुटों में बट गए हैं। एक गुट मध्यप्रदेश सरकार से पदोन्नति में आरक्षण लागू किए जाने की मांग पर अड़ा है तो दूसरा गुट मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के निर्णय का पालन कराने की जुगत में हंै। मसलन आरक्षण को मध्यप्रदेश सरकार ने क्यों लागू किया? इसके पीछे के कारणों की भी खोज हम करेेंगे। इससे पहले उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट नेें भी पदोन्न्ति में आरक्षण को अबैध करार देते हुए 20000 के करीब कर्मचारियों को उनके मूल पद पर रिवर्ट कर दिया गया था। यदि सुप्रीम कोर्ट भी मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखती है तो मध्यप्रदेश में भी राज्य के लगभग 30000 कर्मचारियों को रिवर्ट होना पडे़गा। 
               अब बात आती है कि मध्यप्रदेश सहित देश के अन्य राज्यों में नौकरियों में आरक्षयण क्यों लागू किया गया ? तो हम बता दें कि स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद भारत के संविधान का निर्माण करते समय यह महसूस किया गया था कि लोक सेवाओं में अनुसूचित जाति जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने के लिए उनके लिए विशेष उपबंध किए जाने की आवश्यकता है। तद्नुसार राज्य के अधीन सेवाओं और पदों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षणांें की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 16(4) 16(4क) 16(4ख) और 335 में की गई है। अनुच्छेद 16(4) में राज्य को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह नागरिकों के किसी भी वर्ग के लिए जिसके बारे में राज्य का यह मत हो कि उसे राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधत्व प्राप्त नहीं है, नियुक्तियों अथवा पदों के आरक्षण के लिए कोई भी व्यवस्था कर सकता है। अनुच्छेद 16(4क) जो संविधान (सतहत्तरवां संशोधन) अधिनियम 1995 के द्वारा 19.06.1995 को लागू हुआ था, और अनुच्छेद 16(4ख) जिसे संविधान (इक्यासीवां संशोधन) अधिनियम, 2000 द्वारा संविधान में शामिल किया गया है, राज्य को यह शक्ति प्रदान करते हैं कि वह राज्य के अधीन सेवाओं में किसी भी श्रेणी अथवा श्रेणियों के पदों पर पदोन्नति के मामले मंे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए, जिनके बारे में राज्य का यह मत हो कि राज्य के अधीन सेवाओं में अनुसूचित जाति जनजातियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, आरक्षण की कोई भी व्यवस्था कर सकता है। 
            अब साफ है कि जब राज्य सरकार को यह महसूस हुआ कि राज्य प्रशासन में अनुसूचित जाति, जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है इसके बाद ही राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश पदोन्नति नियम 2002 बनाये थे। इसके बाद ही वर्ष 2002 से आरक्षण प्रावधानों के तहत आरक्षित वर्ग को पदोन्नति का लाभ दिया जा रहा है। नौ साल के अंतराल के बाद भोपाल के अरूण द्विवेदी, आरबी राय, एससी पाण्डेय, एमपी इलेक्ट्रिसिटी प्रोडक्शन कंपनी के एस के गुप्ता समेत सामान्य वर्ग के अन्य कर्मचारियों की ओर से 2011 व इसके बाद उक्त नियम की संवैधानिकता को कठघरे में खड़ा किया था। याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई थी कि इस नियम के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 बी के तहत वर्णित समानता के अधिकार का उल्लंघन है। 
               तर्क दिया गया था कि एक बार सेवा में नियुक्ति के लिए आरक्षण का लाभ पाने के बाद दोबारा इसका लाभ नहीं लिया जा सकता है। मसलन अजाक्स सघंठन ने तो सरकार पर सीधा आरोप भी लगाया है कि प्रमोशन में आरक्षण बहाल रखने में सरकार नाकाम रहीं है। पिछले पांच साल में हाईकोर्ट ने बार-बार मौका दिया फिर भी सरकार मजबूती से अपना पक्ष नहीं रख पाई। इसके बाद से ही सरकार लगातार सबालों के घेरे मंें है। ऐसे में अनुसूचित जाति जनजाति के कर्मचारियों के प्रति सरकार का रवैया गंभीर या नहीं यह तो समय ही बता पाऐगा। 
              हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की चर्चा की जाय तो पिछले छः सालों से सुप्रीम कोर्ट तक कोई अनुसूचित जाति का जज नहीं पहुंचा है। वैसे तो देश में अनुसूचित जाति की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद अनुसूचित जाति से कोई भी जज सुप्रीम कोर्ट में नहीं है। छः साल पहले 11 मई 2010 को सेवानिवृत्त हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन आखिरी अनुसूचित जाति के जज थे। देश के आठ हाईकोर्ट ऐसे भी हैं जहां से शीर्ष अदालत में जज नहीं है। अगस्त 2014 में सासंदों और मंत्रियों ने सदन में इस मुद्दे को अठाया था। उन्होनंे कहा था कि शीर्ष अदालत में अनुसूचित जाति और जनजाति के जजों की नियुति प्रक्रिया में आरक्षण प्रणाली को लाना चाहिए। लेकिन इस पर आगे कुछ काम नही हो सका। 
                उत्तरप्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण खत्म होने के बाद यूपीए सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन विधेयक लाया गया था संविधान में (117 वा संशोधन) विधेयक 2012 पर दो दिनों तक चली बहस के बाद 17 दिसम्बर 2012 को विधेयक पर राज्य सभा में हुए मतदान में 206 मत विधेयक के पक्ष में पड़े जबकि इसके विरोध में मात्र दस ही मत पड़े तब से पदोन्नति में आरक्षण बिल लोक सभा की मंजूरी की बाॅट जोह रहा है। 
                मौजूदा हालातों में जब भी आरक्षण की बात आती है तो एक तूफान सा खड़ा हो जाता है। तर्क बस इतना है कि नौकरी में एक बार आरक्षण प्राप्त करने के बाद प्रमोशन में कैसा आरक्षण। आरक्षण का जिन्न जब भी बाहर आता है सामान्य वर्ग के कर्मचारियों और आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों के बीच दरार पैदा कर देता है। जिसका असर सरकारी कामकाज पर तो पड़ता ही है। बल्कि जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को भी प्रभावित करता है। जब भी आरक्षण खत्म या लागू किए जाने की बात आती है तो निश्चित है, ही राज्य के कर्मचारी दो गुटों में बट जाते हैं। जिसमें संतुलन बनाना भी सरकार का ही काम है। ऐसे में अजाक्स और सपाक्स के बीच ज्ञापन और आंदोलनों की बनती रणनीति के मायनों के साथ-साथ सरकार को पदोन्नति में आरक्षण के मायने समझने ही होंगे।
अनिल कुमार पारा,


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