रविवार, 12 जून 2016

बहुत कठिन है डगर शराबबंदी की ?

बहुत कठिन है डगर शराबबंदी की ?
               एक देश और कई राज्य, एक सरकार और कई सरकारें, यानी अनेकता में एकता भारतीय गणराज्य की यही एक विशेषता रही है। यही कारण है कि अलग-अलग राज्यों की नीतियां भी राष्ट्रीय स्तर पर भारत के किसी भी कोने में रह रहे भारतीयों को प्रभावित करती रहती हैं। भले ही दूसरे राज्यों की नीतियों से हमारा कोई लेना देना नहीं है। पर समाजिक मूल्यों में सुधार हां या आर्थिक सुधार की परिभाषा वह हमारे मन और मस्तिक को कौसों मील दूर तक प्रभावित करती है। यही कारण है कि हम उन नीतियों की चर्चा अपने गली मोहल्ले के हर नुक्कड़ पर बेधड़क करते हैं। यही चर्चा सोसल मीडिया के माध्यम से उन लोगों तक पहुंच ही जाती है, जो लोग सीधे तौर पर देश और प्रदेश की नीतियों के नीति नियंता कहलाते हैं। 
              गली के नुक्कड़ से निकला छोटा और अंतहीन मुद्दा आखिर राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर हल करने की समस्या बन जाता है। सामाजिक मूल्यों में मुद्दा चाहे शराबबंदी का हो या फिर समाज सुधार का या कोई अन्य मुद्दा सबकी अपनी-अपनी जगह अलग पहचान और जरूरत होती है। विकासपरख योजनाएं हों या फिर रोजगारोन्मुखी नीतियां चाहे राज्य स्तर की हो या राष्ट्रीय स्तर की इनका असर तो हर छोटी-से-छाटी जगह में पड़ता ही है। जब बात पूरे देश में शराबबंदी की हो तो फिर इसे विकासपरख योजनाओं में शामिल कर प्रति व्यक्ति की औसतन आर्थिक आय में सुधार के लिए कदम बढ़ाना कहा ही जाऐगा। और ऐसी विकासपरख योजनाओं को सरकार की नीतियों में शामिल कराना हमारा का ध्येय बन जाता है। यही बात बिहार में लागू शरावबंदी के बाद आए उन सार्थक परिणामों की भी है जो जनता और जनार्दन से सीधे जमीनी स्तर पर जुड़े थे, और इसके परिणाम भी आम जनता के लिए अनुकूल दिखने लगे हैं। बहरहाल बिहार के बाद देश के दक्षिणी राज्यों में भी शराबबंदी पर रोक की आवाजें अब उठने लगीं हैं। 
            शराब को प्रतिबंधित करने वाला अकेला बिहार राज्य नहीं ह,ै इससे पहले गुजरात, नागालैंड, लक्षद्वीप, जैसे राज्यों में शराब बिक्री पर रोक लगी हुई है। ऐसा भी नहीं कि इन राज्यों में शराबबंदी होने से राज्य के राजस्व को अपूर्तिनीय क्षति हुई हो। बल्कि शराबबंदी होने से इन राज्यों की प्रतिव्यक्ति औसतन आय में इजाफा हुआ है। यानी जो खर्च प्रतिव्यक्ति शराब के सेवन में करता था। उसकी बचत होने से इनकी आर्थिक स्थित में सुधार के आंकडों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। मसलन बिहार के बाद पूरे देश में अलग-अलग जगहों से शराब बंदी की पुरजोर मांग उठ रही है कि शराब बिक्री पर पूरे देश में एक साथ बैन लगाया जाय। शराब बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध राज्य सरकारों के खजाने लिए तो जोखित भरा है ही केन्द्र सरकार के लिए भी इस विषय में कोई फैसला लेना असंभव ही जान पड़ता है। तब कहा जा सकता है कि बहुत कठिन है डगर शराबबंदी की। 
             हालांकि गुजरात, बिहार, नागालैंड , लक्षद्वीप जैसे राज्यों को शराब बिक्री पर बैन क्यों लगाना पड़ा इसको भी समझना ही पड़ेगा। क्या ये चुनावी स्टंट था ? या फिर सही मायने में राज्य की जनता को नशा मुक्त बनाने का संकल्प ? गुजराज , बिहार, नागालैंड, लक्षद्वीप ही नहीं वर्ष 2014 से पहले मणिपुर में भी शराब की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ था। जिसे 2014 के बाद कुछ इलाकों से शराब पर बैन हटा लिया गया है। हाल ही के चुनावों के परिणामांं से पहले जो राजनीतिक दल शराब बिक्री पर बैन की घोषणा कर रहे थ,े उनमें अकेले तमिलनाडु राज्य में डीएमके के द्वारा धोषणा की गई थी कि शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जायेगा। इसी प्रकार एआईएडीएमके ने भी राज्य में चरणबद्ध तरीके से शराब पर पाबंदी लगेगी की घोषणा से प्रभावित होकर राज्य की जनता ने फिर से जयललिता को राज्य की कमान सौंप दी है। हार का सामना कर चुकी पीएमके और पीपुल्स वेलफेयर फ्रंट ने भी राज्य में शराब पर पाबंदी और विक्रेताओं के लाइसेंस रद्द किए जाने की घोषणा कर चुके थे। 
             तमिलनाडु राज्य पर नजर दौड़ाई जाय तो अकेल तमिलनाडु राज्य में शराब पीने वालों की तादात 1.32 करोड़ है। जिसमें राज्य की प्रति व्यक्ति मासिक आय 10,697 रूपये है। जिसमें प्रतिव्यक्ति 6,522 रूपये शराब पर होने वाला औसत मासिक खर्च है। अकेले तमिलनाडु में 67,444 करोड़ हर साल शराब से होने वाली शारीरिक बीमारियों के कारण खर्च हो जाता है। ऐसे हालातों में अकेले तमिलनाडु में प्री पोल सर्वे में 95 प्रतिशत महिलाएं और 82 प्रतिशत पुरूष ने (तमिलनाडु स्टेट मार्केटिंग क्रॉप) को बंद करने की मांग की है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी राज्य में शराब बिक्री को धीरे-धीरे बंद करने की धोषणा कर चुके हैं। अब देखना यही है कि चार राज्यों के बाद क्या मध्यप्रदेश राज्य भी शराब को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर पाऐगा ? या फिर राजस्व में घाटे की दुहाई देकर यह राज्य भी अपनी धोषणा की इतिश्री कर लेगा। तब भी कहा जाएगा कि बहुत कठिन है डगर शराबबंदी की। 
             देश में अलग-अलग राज्यों से शराब बंदी की आवाजें उठने के बाद देश के वह राजनेता भी सक्रिय हो गये हैं जिनके पास शराब का कारोबार है। अथवा उनका संबंध शराब उद्योग से कई वर्षो से चला आ रहा है। ऐसे हालातों में राज्य और देश में शराबबंदी की परिभाषा कुछ अलग ही हो सकती है। जाहिर है शराबबंदी से इसका सेवन करने वालों पर तो असर पड़ेगा ही सबसे ज्यादा यदि असर पड़ेगा तो उन राजनेताओं की तिजोरी को पड़ेगा जो कई दसकों से इस धंधे से फल फूल रहे हैं। तब देश और प्रदेश में शराब बंदी के मायने जनता की चाह पर कायम नहीं हो सकते। ऐसे हालातों में भी कहा जा सकता है कि बहुत कठिन है डगर शराबबंदी की। एक तरफ आंकड़ांं पर भरोषा किया जाय तो अकेल भारत में शराब के प्रभाव से हर 96 वें मिनट पर एक भारतीय की मौत हो जाती है। वर्ष 2013 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में शराब से प्रतिदिन 15 लोग या हरेक 96 वें मिनट में एक भारतीय मौत के काल के गाल में समा जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 11 फीसदी से अधिक भारतीय शराब के प्रभाव में आए हैं। 
            यह आंकड़े शराबबंदी के खिलाफ व्यापक राजनीतिक समर्थन होने की ओर इशारा जरूर करते हैं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि शराब एक सवास्थ्य संबंधित समस्या है न कि नैतिक समस्या। पर मौजूदा हालातों में शराबबंदी स्वास्थ्य समस्या नहीं रह गई है, बल्कि हमारी नैतिक समस्या भी बन गई है। जिसे एक व्यक्ति या एक राज्य हल नहीं कर सकता है। शराबबंदी का निर्णय कोई भी सरकार ले भी लेती है तो इसे लागू करने में उस राज्य की उस आबादी पर ज्याद निर्भर होता है जो आबादी इसका उपभोग करती चली आ रही। शराबबंदी के पीछे उस समाज की भी कल्पना हमको करनी होगी जो समाज हमारी आने वाली पीड़ी से आने वाले समय में आकार लेने वाला है। और उसी समाज से हमारे मुहल्ले, हमारे गांव, हमारे शहर, हमारे राज्य, हमारे देश का ही नहीं हमारे विश्व का निर्माण हो सके। 
            यानी जब तक हम नहीं सुधरेंगे तब तक देश और प्रदेश में शराबबंदी लागू होना संभव ही नहीं नामुकिन भी है। अब इसे समझने के बाद सवाल साफ हो चुका कि पहले हम तो सुधर जाएं? फिर हमारा घर सुधरेगा, और जब हमारा घर सुधरेगा तो हमारा मोहल्ला भी सुधर जाएगा। और जब हमारा मोहल्ला सुधरेगा तब हमारा गांव भी सुधर जाएगा। यही कड़ी गांव से शहर और शहर से प्रदेश, और प्रदेश से देश तक जाएगी। तभी हम अपने प्रदेश और देश को शराब मुक्त बना पाएंगे।
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अनिल कुमार पारा,

पदोन्नति में आरक्षण के मायने !




पदोन्नति में आरक्षण के मायने !
               पिछले दिनों मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने मध्यप्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद मध्यप्रदेश राज्य कर्मचारी दो गुटों में बट गए। हालांकि राज्य सरकार पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के समर्थन में होने पर राज्य सरकार के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने भी मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के आदेश की अपील स्वीकार कर वर्ष 2002 से अब तक हुए प्रमोशन में यथास्थिति यानी कि अब प्रदेश के लगभग 30 हजार अनुसूचित जाति जनजाति के शासकीय सेवक अपने वर्तमान पदों पर कार्य करते रहेगें उन्हें रिवर्ट नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनुसूचित जाति, जनजाति के शासकीय सेवकों में थोड़ी सी खुशी जरूर देखी गई है। पर अनुसूचित जाति, जनजाति के कर्मचारी अजाक्स के बैनर तले अब सरकार से पुरजोर मांग कर रहे हैं कि सरकार पदोन्नति नियम 2016 बनाए और पदोन्नति में आरक्षण को फिर से लागू किया जाय।
                 बहरहाल मध्यप्रदेश पदोन्नति नियम 2002 असंवैधानिक होते ही राज्य के कर्मचारी दो गुटों में बट गए हैं। एक गुट मध्यप्रदेश सरकार से पदोन्नति में आरक्षण लागू किए जाने की मांग पर अड़ा है तो दूसरा गुट मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के निर्णय का पालन कराने की जुगत में हंै। मसलन आरक्षण को मध्यप्रदेश सरकार ने क्यों लागू किया? इसके पीछे के कारणों की भी खोज हम करेेंगे। इससे पहले उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट नेें भी पदोन्न्ति में आरक्षण को अबैध करार देते हुए 20000 के करीब कर्मचारियों को उनके मूल पद पर रिवर्ट कर दिया गया था। यदि सुप्रीम कोर्ट भी मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखती है तो मध्यप्रदेश में भी राज्य के लगभग 30000 कर्मचारियों को रिवर्ट होना पडे़गा। 
               अब बात आती है कि मध्यप्रदेश सहित देश के अन्य राज्यों में नौकरियों में आरक्षयण क्यों लागू किया गया ? तो हम बता दें कि स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद भारत के संविधान का निर्माण करते समय यह महसूस किया गया था कि लोक सेवाओं में अनुसूचित जाति जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने के लिए उनके लिए विशेष उपबंध किए जाने की आवश्यकता है। तद्नुसार राज्य के अधीन सेवाओं और पदों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षणांें की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 16(4) 16(4क) 16(4ख) और 335 में की गई है। अनुच्छेद 16(4) में राज्य को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह नागरिकों के किसी भी वर्ग के लिए जिसके बारे में राज्य का यह मत हो कि उसे राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधत्व प्राप्त नहीं है, नियुक्तियों अथवा पदों के आरक्षण के लिए कोई भी व्यवस्था कर सकता है। अनुच्छेद 16(4क) जो संविधान (सतहत्तरवां संशोधन) अधिनियम 1995 के द्वारा 19.06.1995 को लागू हुआ था, और अनुच्छेद 16(4ख) जिसे संविधान (इक्यासीवां संशोधन) अधिनियम, 2000 द्वारा संविधान में शामिल किया गया है, राज्य को यह शक्ति प्रदान करते हैं कि वह राज्य के अधीन सेवाओं में किसी भी श्रेणी अथवा श्रेणियों के पदों पर पदोन्नति के मामले मंे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए, जिनके बारे में राज्य का यह मत हो कि राज्य के अधीन सेवाओं में अनुसूचित जाति जनजातियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, आरक्षण की कोई भी व्यवस्था कर सकता है। 
            अब साफ है कि जब राज्य सरकार को यह महसूस हुआ कि राज्य प्रशासन में अनुसूचित जाति, जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है इसके बाद ही राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश पदोन्नति नियम 2002 बनाये थे। इसके बाद ही वर्ष 2002 से आरक्षण प्रावधानों के तहत आरक्षित वर्ग को पदोन्नति का लाभ दिया जा रहा है। नौ साल के अंतराल के बाद भोपाल के अरूण द्विवेदी, आरबी राय, एससी पाण्डेय, एमपी इलेक्ट्रिसिटी प्रोडक्शन कंपनी के एस के गुप्ता समेत सामान्य वर्ग के अन्य कर्मचारियों की ओर से 2011 व इसके बाद उक्त नियम की संवैधानिकता को कठघरे में खड़ा किया था। याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई थी कि इस नियम के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 बी के तहत वर्णित समानता के अधिकार का उल्लंघन है। 
               तर्क दिया गया था कि एक बार सेवा में नियुक्ति के लिए आरक्षण का लाभ पाने के बाद दोबारा इसका लाभ नहीं लिया जा सकता है। मसलन अजाक्स सघंठन ने तो सरकार पर सीधा आरोप भी लगाया है कि प्रमोशन में आरक्षण बहाल रखने में सरकार नाकाम रहीं है। पिछले पांच साल में हाईकोर्ट ने बार-बार मौका दिया फिर भी सरकार मजबूती से अपना पक्ष नहीं रख पाई। इसके बाद से ही सरकार लगातार सबालों के घेरे मंें है। ऐसे में अनुसूचित जाति जनजाति के कर्मचारियों के प्रति सरकार का रवैया गंभीर या नहीं यह तो समय ही बता पाऐगा। 
              हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की चर्चा की जाय तो पिछले छः सालों से सुप्रीम कोर्ट तक कोई अनुसूचित जाति का जज नहीं पहुंचा है। वैसे तो देश में अनुसूचित जाति की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद अनुसूचित जाति से कोई भी जज सुप्रीम कोर्ट में नहीं है। छः साल पहले 11 मई 2010 को सेवानिवृत्त हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन आखिरी अनुसूचित जाति के जज थे। देश के आठ हाईकोर्ट ऐसे भी हैं जहां से शीर्ष अदालत में जज नहीं है। अगस्त 2014 में सासंदों और मंत्रियों ने सदन में इस मुद्दे को अठाया था। उन्होनंे कहा था कि शीर्ष अदालत में अनुसूचित जाति और जनजाति के जजों की नियुति प्रक्रिया में आरक्षण प्रणाली को लाना चाहिए। लेकिन इस पर आगे कुछ काम नही हो सका। 
                उत्तरप्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण खत्म होने के बाद यूपीए सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन विधेयक लाया गया था संविधान में (117 वा संशोधन) विधेयक 2012 पर दो दिनों तक चली बहस के बाद 17 दिसम्बर 2012 को विधेयक पर राज्य सभा में हुए मतदान में 206 मत विधेयक के पक्ष में पड़े जबकि इसके विरोध में मात्र दस ही मत पड़े तब से पदोन्नति में आरक्षण बिल लोक सभा की मंजूरी की बाॅट जोह रहा है। 
                मौजूदा हालातों में जब भी आरक्षण की बात आती है तो एक तूफान सा खड़ा हो जाता है। तर्क बस इतना है कि नौकरी में एक बार आरक्षण प्राप्त करने के बाद प्रमोशन में कैसा आरक्षण। आरक्षण का जिन्न जब भी बाहर आता है सामान्य वर्ग के कर्मचारियों और आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों के बीच दरार पैदा कर देता है। जिसका असर सरकारी कामकाज पर तो पड़ता ही है। बल्कि जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को भी प्रभावित करता है। जब भी आरक्षण खत्म या लागू किए जाने की बात आती है तो निश्चित है, ही राज्य के कर्मचारी दो गुटों में बट जाते हैं। जिसमें संतुलन बनाना भी सरकार का ही काम है। ऐसे में अजाक्स और सपाक्स के बीच ज्ञापन और आंदोलनों की बनती रणनीति के मायनों के साथ-साथ सरकार को पदोन्नति में आरक्षण के मायने समझने ही होंगे।
अनिल कुमार पारा,


शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

आरक्षण पर सियासत क्‍यों ?


वैसे तो देश में आरक्षण का इतिहास काफी पुराना है। जिसमें विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बडे क्षेत्र में पिछड़े वर्गो के लिए आजादी के बहुत पहले आरक्षण की शुरूआत हुई थी।महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा क्षत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछडे़ वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी नियत करने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। छत्रपति साहूजी महाराज का यह कदम दलित वर्गो के कल्याण के लिए आरक्षण देने का पहला सरकारी फरमान था।
देश में जातियों के सूचीकरण का भी इतिहास मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरूआत होती है।आरक्षण की मांग को लेकर पिछडे़ वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडू में जोर पकड़ा । देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत् प्रयासों से अगडे़ वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनाई गई दीवार पूरी तरह से ढह गयी उन समाज सुधारकों में शामिल रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, क्षत्रपति साहूजी महाराज प्रमुख थे। भारत में आरक्षण को खत्म करने का सिलसिला भी काफी पुराना ही है आरक्षण विरोधियों द्वारा आरक्षण को खत्म करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक लडाई लड़ी है। जिसमें आरक्षण को जारी रखने के लिए भारत में वर्ष 1951 से लेकर वर्तमान समय तक भारत की न्यायपालिका ने भी कई अहम निर्णय पारित किए हैं। फिर क्यों देश की न्यायपालिका के निर्णयों को भी तबज्जो ना देकर अगड़ी जातियों द्वारा आरक्षण की मांग के लिए आम जनता को आरक्षण की मांग के आंदोलन में धकेला जा रहा है।और आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग की जा रही है।
‘‘या तो आरक्षण खत्म करो या हमें भी आरक्षण दो’’ ऐसे नारे देश में गूंज रहे हैं। मुद्दा यह भी कि आज तक आरक्षण का लाभ आरक्षित सम्पन्न वर्ग के लोगों द्वारा ही लिया गया है। गरीब और जरूरमंद को इसका लाभ नहीं मिल पाया है। इसी आधार पर सभी वर्गो के गरीब वर्ग के लिए आरक्षण की मांग की जा रही है। अहम बात यह भी है कि जब आजादी के 68 सालों में आरक्षित गरीब वर्ग के लोगों को लाभ नहीं मिल पाया तब इसकी क्या गारंटी है कि आरक्षण खत्म करने पर इस तबके को शासन की समस्त सुविधाओं का लाभ मिल जाऐगा।
इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केन्द्र सरकार (यूनियन आफ इंडिया) में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गो के लिए अलग से आरक्षण लागू करने को सही ठहराया है। एवं अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए अलग से आरक्षण को अमान्य कर दिया। फिर क्यों वह समाज न्याय और सिद्धांत से परे होकर भोली भाली जनता को उकसा कर देश में शांति भंग कर रहा है? हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 में लोक सभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसी प्रकार अनुच्छेद 331 में लोक सभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं हैं तो महामहिम राष्ट्रपति महोदय, लोक सभा में उस समुदाय के दो से अनधिक सदस्य नामनिर्देशित कर सकते हैं। अनुच्छेद 332 राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों के आरक्षण का समर्थन करता है।
अनुच्छेद 333 में राज्यों की विधान सभाओं में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतितिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो महामहिम राज्यपाल उस विधान सभा में उस समुदाय का एक सदस्य नाम निर्देशित कर सकते हैं। तो फिर क्यों संवैधानिक पदों पर आसीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय एवं राज्यपाल महोदय के अधिकारों को अधिक्रमित किए जाने पर हम आमादा है। क्या हम संविधान की उद्देशिका की वह कसम भूल चुके हैं जिसमें हमने कसम खाई थी ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में 26 नवंबर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’ फिर क्यों संविधान को अंगीकृत करने की इस कसम को भूलकर सड़कों पर उतरकर आंदोलन की राह पर निकल पडे़ हैं। क्या हम अपने स्वार्थ के लिए उन बेकसूर लोगों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाकर उनकी बली चढ़ा देना चाहते हैं? आधुनिक भारत के प्रथम उद्गाता महात्मा ज्योतिबा फुले जिन्होंने लिखा था ‘‘स्त्री तथा पुरूष ये दोनों जन्म से ही स्वतंत्र है तथा सभी अधिकारों का लाभ लेने के लिए अधिकारी है....कोई एक मनुष्य या मनुष्यों की टोली किसी व्यक्ति पर जबरदस्ती शासन नहीं कर सकती।’’ तो फिर क्यों महात्मा जयोतिबा फुले के उस कथन को झुटलाने पर हम आमादा हैं।
हम ऋणी है संविधान के निर्माता डॉ0 बाबा साहेब अम्बेडकर के जिन्होंने भारत को एक अनुपम संविधान दिया है। जिसने परस्पर विरोधों से भरपूर इस देश को जोड़कर रखा है। हम ऋणी है संविधान सभा के उन सभी महानुभावों के जो एक दूसरे के विरोधी थे, किन्तु उन्होंने समय से समझौता कर संविधान निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। अगर वें महानुभाव हठधर्मिता अपनाते तो भारत अनेक टुकडों में बटा हुआ नजर आता । एक राष्ट्र-एक देश बनाने के दृढ संकल्प का ही परिणाम है हमारा संविधान। आज हम उसी संविधान के प्रति अपनी आस्था खो बैठे हैं। आरक्षण का जिन्न अनुसूचित जाति जनजाति पिछड़ा वर्ग के लोगों को ऐसे ही नही मिल गया है। जिसे आंदोलन के जरिये समाप्त किया जा सकता हो। आरक्षण को समाप्त किया जाना अनुसूचित जाति जनजाति पिछडे़ वर्ग के शोषितों के साथ न्याय नहीं होगा। इतिहास पर नजर डाली जाय तो डॉ0.अम्बेडकर ने शोषित वर्ग की समस्याओं को ब्रिटिश सरकार के सामने रखा था....और उनके लिए विशेष सुविधाएं प्रदान किये जाने की मांग की...डॉ.अम्बेडकर की तर्कसंगत बातें मानकर ब्रिटिस सरकार ने शोषित वर्ग को विशेष सुविधाएं देने की बात मान ली और 1927 में साइमन कमीशन भारत आया।
कुछ लोगों को साइमन कमीशन का भारत आना रास नहीं आया। साइमन कमीशन के भारत आने पर डॉ0 अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार के सामने स्पष्ट किया कि अस्पृश्यों का हिन्दुओं से अलग अस्तित्व है...वे गुलामों जैसा जीवन जी रहे हैं, इनको न तो सार्वजनिक कुओं से पानी भरने की इजाजत है न ही पढ़ने लिखने का अधिकार । पांच वर्ष तक निरन्तर संघर्ष की सीड़ी चढ़ते-चढ़ते 1932 में रॉमसे मैक्डोनल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के लिए तत्कालीन योजना की धोषणा की इसे कम्यूनल एवार्ड के नाम से जाना गया। इस अवार्ड में अछूत कहे जाने वाले समाज को दुहरा अधिकार मिला.....प्रथम वे सुनिश्चित सीटों की आरक्षित व्यवस्था में अलग चुनकर जाएंगे....और दूसरा दो वोटों का अधिकार...एक वोट आरक्षित सीट के लिए और दूसरा अनारक्षित सीट के लिए...पर कुछ लोगों को यह रास नहीं आया और इसके बदले देश में आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने हेतु पूना पैक्ट पर समझौता हो गया।
समय बदला और धीरे धीरे आरक्षण की व्यवस्था ने उस शोषित वर्ग को सीधा लाभ पहुंचाना शुरू ही किया कि आज फिर आरक्षण विरोधी स्वर मुखर हो गये हैं। और जातिगत आरक्षण व्यवस्था को समाप्त किए जाने की आवाजें हर गली और हर मोहल्ले से आनी शुरू हो गयी हैं। तर्क बस इतना है कि आज भी शोषित वर्ग आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाया है। ठीक है यदि आरक्षण का लाभ अनुसूचित जाति जनजाति पिछड़ा वर्ग को नहीं मिला तो फिर विरोध के सुर क्यों उठ रहे हैं? जातिगत आरक्षण की व्यवस्था ने ही शोषित और वंचित वर्ग को सीधा लाभ पहुंचाया है। अब आर्थिक आधार पर आरक्षण मांगने की बात कहां तक सही है यह तो वक्त ही बता पाएगा। पर इसकी क्या गारंटी है कि आर्थिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण से उस शोषित और वंचित वर्ग को सीधा लाभ मिल मिलने लगेगा जो वर्ग आज तक शासन की सुविधाओं से वंचित है? सवाल यह भी है कि आजादी के 68 सालों बाद भी अनुसूचित जाति और जनजाति पर होने वाले अत्याचारों में कमीं नहीं आई है। आरक्षण समाप्त करने पर क्या इस वर्ग हो रहे अत्याचारों पर लगाम लग पाएगी?
या फिर दबंगों की दबंगई इस वर्ग से उस हथियार को भी छुडा लेना चाहती है जो इस वर्ग की हिफाजत कानून की किताबों की इबारत बन कर कर रहा है? आरक्षण खत्म करने के परिणाम दूरगामी किसी भी सूरत में नहीं हो सकते । फिर क्यों ऐसी मुहिम समाज के उस वर्ग के द्वारा छेड़ी जा रही है? आरक्षण खत्म करने की आवाजें सुखदायी जरूर होंगी पर इन आवाजों के पीछे वर्ण व्यवस्था को खत्म करने संबंधी आवाजें आगे क्यों नहीं आ रहीं हैं?

शनिवार, 2 मई 2015

विखण्‍ड़ित होते कुटुम्‍ब, परिवार ।

विखण्ड़ि‍त होते कुटुम्ब,परिवार !


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               दोस्तों, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भारत गांवों में बसता है’ लेकिन यह कथन कहने तक सीमित रह गया है। जिसकी तस्वीर दूर की कल्पना से नजर नहीं आ सकती है। प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत के निर्माण तक भारत के गांवों की तस्वीर गांव की गलियों में ही मिल सकती है। आज भी भारत के ज्यादातर गावों में तीन-चार पीडि़यों से रिस्ते के अमूल्य बंधन एक दूसरे से बंधे हैं। पीड़ी-दर पीड़ी भावनाओं की अटूट मिशाल एक दूसरे से लिपटी देखी जा सकती है। यही पीड़ी आज विकास की अपार संभावनाओं के बीच भारत के गांवों से शहर की ओर पलायन कर रही है। भौतिक सुख सुविधाओं की चाह में ग्रामीण आवादी शहरों की घनी आवादी की रौनक बनती जा रही है। वैसे तो भारत की संस्कृति परिवार रूपी गठरी से बंधी रहने के नाम से जानी जाती है पर आधुनिक युग में छोटी-छोटी बातों को लेकर विखण्डि़त होते परिवार भारतीय परिवारों की अंदरूनी समस्या बन गई है। 
               गांवों की फुरसत की आजादी से शहर की ओर भागते परिवार आधुनिकता की चकाचौंध में भागमभाग की चिकनी सड़कों पर रोज फिसलते दिखाई दे रहें हैं। जो भारत के हर घर की कहानी बनते जा रहें हैं। एक तरफ रोज टूटते परिवार चिन्ता का विषय तो है हीं पर समाधान के विषय क्यों नहीं होते हैं? भले ही भारत में कई स्वंसेवी संस्थाऐं परिवार परामर्श केन्द्र चला रहीं हो पर विखण्डि़त होते परिवार के लोगों पर वस किसी का नहीं चलता है। भारत के सात लाख गांवों से ही मिलकर भारत की शहरी सभ्यता का निर्माण हुआ है। भारतीय सभ्यता के ठेकेदार तो लगे हाथ यह भी कह देते हैं कि ग्रामीण आवादी को मुहैया होती शहरी सुख सुविधाओं और आधुनिकता ने ही भारत के घरों में बसने वाली स्नेह, प्यार और अपनेपन की संस्कृति के ऊपर कुठाराघात किया है। जिसका परिणाम आज विखण्डि़त होते परिवारों के रूप में देखने को मिल रहा है। भारतीय सभ्यता में कुटुंब परिवार का मूल्य सबसे बड़ा माना गया है। 
              कुटुंब ही इस पृथ्वी की सांसरिक गतिविधियों का संचालन आधुनिक काल से करता चला आ रहा है। कुटुंब की एकता, परिवार की एकता एवं समरूपता इस पृथ्वी का संचालन कर रही है।अहम बात तो यह है कि रोजमर्रा में घटने वाली घटनाओं के पीछे परिवार की वह गठरी बंधी है जहां अकेलेपन की दीवार छोटी दिखाई देती है। भारतीय सभ्यता में गांवों की झलक देखी जाय तो निश्चित रूप कुटुम्ब परिवार की वह कड़ी आपस में एक दूसरे से जुड़ी नजर आऐगी मानो फूलों की माला आज भी मुरझाई नहीं हो। पर शहरी सभ्यता आधुनिकता की दौड़ में अकेले रहना ज्यादा पसंद करती है। इसी सभ्यता के बीच टूट जाती है है वह आशा जो बंधे हुऐ परिवार ने एक दूसरे से लगाये रखी है। 
               भारत को संस्कारों की जननी कहने में कतई संकोच नहीं है क्यों कि भारतीय सभ्यता के एक कुटुंब से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि कुटुम्ब परिवार रूपी एक माला है, जो कि परिवारिक रूप में हमें दिनचर्या के माध्यम से दिखाई पढ़ती है।यही परिवार की माला कुटुंब की माला एक कच्चे धागे से बनी है, उस कच्चे धागे में विभिन्न प्रकार के रंगों के फूल सूत्राधार में बंधे हैं, कहने का मतलब यह है कि अगर इस कुटुंब रूपी माला का कच्चा धागा यह कहे कि मेरे ऊपर यह माला बंधी है, मेरे अस्तित्व से इस माला का निर्माण हुआ है। और अलग-अलग रंगों के फूल यह कहें कि हम नहीं होते तो यह माला कैसे बनती अर्थात सही मायने में देखा जाये तो माला का निर्माण कच्चे धागे ओर विभिन्न रंगों व फूलों के मिलन से हुआ है। तब जाकर इस माला का निर्माण अथवा इस परिवार का निर्माण हुआ है। सभी फूलों को यह मालूम है कि हम जिससे बंधे है वह एक कच्चा धागा है अगर हम थोड़ा भी झटका दे देंगे तो यह कुटुंब रूपी माला टूट जायेगी।अर्थात कहने का मतलब यह है कि जिस माला में जिस कुटुंब में अलग-अलग रंग अलग-अलग सोच के लोग एंव फूल रहते हैं जिनसे मिलकर एक कुटुंब का निर्माण हुआ है। उन्हें कभी भी यह सोचना नहीं चाहिऐ कि में लाल रंग का फूल हूं मेरी खुशबू अच्छी है, और किसी को यह भी नहीं सोचना चाहिए कि में पीले रंग का फूल हूं मेरी खुशबू अच्छी है, मैं मानता हूं कि खुशबू तो अच्छी है पर यह जानना भी जरूरी है कि हम जिस धागे से बंधे है वह कच्चा धागा है, अगर सभी फूलों ने यह सोच लिया अर्थात परिवार के सभी सदस्यों ने यह सोच लिया तो उस कुटुंब रूपी माला का अन्त कभी नहीं होगा। बहरहाल हमें यह अच्छी तरह मालूम है कि कुटुम्ब परिवार में अपने को श्रेष्ठ साबित करने से ही कुटुम्ब रूपी माला निरन्तर टूट रही है, अर्थात अपने गुणों का गुणगान कर दूसरे के प्रति उसे नीचा दिखाने की भावना ही भारत में रोज टूटते परिवारों की कहानी बन रही है। 
             भारत की संस्कृति कुटुम्ब और परिवार से चलने वाले क्रियाकलापों की शैली रही है। जो किसी न किसी रूप में परिवार की गतिविधियों में व्याप्त है। भारतीय सभ्यता में रिस्तों की डोर अटूट मानी जाती है, जिसमें प्यार और स्नेह का भरपूर रंग चढ़ा रहता है, उस रंग की सुगंध उन लोगों को भी मोहित कर देती है जिन लोगों पर इन रिस्तों की डोर की छाया थोड़ी भी पढ़ जाती है। पर आधुनिक युग में जीवन जीने के तरीके इन परिवार और कुटुम्ब रूपी माला को हर रोज तोड़ रहे हैं।जिसका असर माँ-बाप भाई-बहन चाचा-चाची ताऊ और ताई से होती दूरियों में झलकता है। रिस्तों की डोर तो नाजुक होती ही है, जरा सा भार पढ़ने पर टूटने से रोका नहीं जा सकता है। घर को प्यार का मंदिर कहा जाता है जंहा माता पिता से मिलता अपार प्यार और स्नेह जीवन जीने के तरीकों को और सुगन्धित कर देता है। जिसकी खुशबू उसी रूप में घर के बाहर भी दिखाई देती है। भारत के घरों में मिलने वाली संस्कार की पूंजी अमूल्य है जिसका कौई मौल नहीं है, फिर हम यह सब भूल कर सुखमयी संस्कृति को एक दूसरे से अलग होकर विखण्डि़त कर रहे हैं आखिर क्यों? क्या शहरी सभ्यता और ब्रान्डेड कपड़े ने उस अपार प्यार को पूरी तरह से ढ़क दिया जिसका परिणाम विखण्डि़त होते परिवारों के रूप में हमको भुगतना पढ़ रहा है। कुटुम्ब परिवार के बिना जीवन जीने की परिभाषाऐं अधूरी होती जा रहीं है। अकेलेपन की संस्कृति हमारे देश में कहां से आई है इसका जवाब किसी के पास नहीं है? कुटुम्ब परिवार का नाम सुनने को तो मनमोहक लगता है पर वर्तमान परिवेश की आधुनिक पीड़ी ने कुटुम्ब परिवार की मोहकता का गला धोंट के रख दिया है। एक दूसरे से ज्यादा कमाने और काम करने के अहम ने कुटुम्ब परिवार रूपी लीला का अंत कर दिया है। 
              आखिर कब तक हमारे कुटुम्ब परिवार के लोग एक दूसरे से विखण्डित होते रहेंगे? यह अब समझ के परे हो गया है। जरा-जरा सी बातों पर अपनों की अपनों पर वेदनाओं के तीर सीधे कुटुम्ब परिवार की माला को कमजोर करने में लगे हुऐ हैं।और सवेंदनाओं की दवाई अपनों के तीर से लगे घाव को भरने में भी असमर्थ हो रही है। परिणामस्वरूप देश का हर आंगन आज बट चुका है।
कुमार अनिल पारा,
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