शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

आरक्षण पर सियासत क्‍यों ?


वैसे तो देश में आरक्षण का इतिहास काफी पुराना है। जिसमें विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बडे क्षेत्र में पिछड़े वर्गो के लिए आजादी के बहुत पहले आरक्षण की शुरूआत हुई थी।महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा क्षत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछडे़ वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी नियत करने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। छत्रपति साहूजी महाराज का यह कदम दलित वर्गो के कल्याण के लिए आरक्षण देने का पहला सरकारी फरमान था।
देश में जातियों के सूचीकरण का भी इतिहास मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरूआत होती है।आरक्षण की मांग को लेकर पिछडे़ वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडू में जोर पकड़ा । देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत् प्रयासों से अगडे़ वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनाई गई दीवार पूरी तरह से ढह गयी उन समाज सुधारकों में शामिल रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, क्षत्रपति साहूजी महाराज प्रमुख थे। भारत में आरक्षण को खत्म करने का सिलसिला भी काफी पुराना ही है आरक्षण विरोधियों द्वारा आरक्षण को खत्म करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक लडाई लड़ी है। जिसमें आरक्षण को जारी रखने के लिए भारत में वर्ष 1951 से लेकर वर्तमान समय तक भारत की न्यायपालिका ने भी कई अहम निर्णय पारित किए हैं। फिर क्यों देश की न्यायपालिका के निर्णयों को भी तबज्जो ना देकर अगड़ी जातियों द्वारा आरक्षण की मांग के लिए आम जनता को आरक्षण की मांग के आंदोलन में धकेला जा रहा है।और आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग की जा रही है।
‘‘या तो आरक्षण खत्म करो या हमें भी आरक्षण दो’’ ऐसे नारे देश में गूंज रहे हैं। मुद्दा यह भी कि आज तक आरक्षण का लाभ आरक्षित सम्पन्न वर्ग के लोगों द्वारा ही लिया गया है। गरीब और जरूरमंद को इसका लाभ नहीं मिल पाया है। इसी आधार पर सभी वर्गो के गरीब वर्ग के लिए आरक्षण की मांग की जा रही है। अहम बात यह भी है कि जब आजादी के 68 सालों में आरक्षित गरीब वर्ग के लोगों को लाभ नहीं मिल पाया तब इसकी क्या गारंटी है कि आरक्षण खत्म करने पर इस तबके को शासन की समस्त सुविधाओं का लाभ मिल जाऐगा।
इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केन्द्र सरकार (यूनियन आफ इंडिया) में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गो के लिए अलग से आरक्षण लागू करने को सही ठहराया है। एवं अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए अलग से आरक्षण को अमान्य कर दिया। फिर क्यों वह समाज न्याय और सिद्धांत से परे होकर भोली भाली जनता को उकसा कर देश में शांति भंग कर रहा है? हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 में लोक सभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसी प्रकार अनुच्छेद 331 में लोक सभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं हैं तो महामहिम राष्ट्रपति महोदय, लोक सभा में उस समुदाय के दो से अनधिक सदस्य नामनिर्देशित कर सकते हैं। अनुच्छेद 332 राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों के आरक्षण का समर्थन करता है।
अनुच्छेद 333 में राज्यों की विधान सभाओं में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतितिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो महामहिम राज्यपाल उस विधान सभा में उस समुदाय का एक सदस्य नाम निर्देशित कर सकते हैं। तो फिर क्यों संवैधानिक पदों पर आसीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय एवं राज्यपाल महोदय के अधिकारों को अधिक्रमित किए जाने पर हम आमादा है। क्या हम संविधान की उद्देशिका की वह कसम भूल चुके हैं जिसमें हमने कसम खाई थी ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में 26 नवंबर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’ फिर क्यों संविधान को अंगीकृत करने की इस कसम को भूलकर सड़कों पर उतरकर आंदोलन की राह पर निकल पडे़ हैं। क्या हम अपने स्वार्थ के लिए उन बेकसूर लोगों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाकर उनकी बली चढ़ा देना चाहते हैं? आधुनिक भारत के प्रथम उद्गाता महात्मा ज्योतिबा फुले जिन्होंने लिखा था ‘‘स्त्री तथा पुरूष ये दोनों जन्म से ही स्वतंत्र है तथा सभी अधिकारों का लाभ लेने के लिए अधिकारी है....कोई एक मनुष्य या मनुष्यों की टोली किसी व्यक्ति पर जबरदस्ती शासन नहीं कर सकती।’’ तो फिर क्यों महात्मा जयोतिबा फुले के उस कथन को झुटलाने पर हम आमादा हैं।
हम ऋणी है संविधान के निर्माता डॉ0 बाबा साहेब अम्बेडकर के जिन्होंने भारत को एक अनुपम संविधान दिया है। जिसने परस्पर विरोधों से भरपूर इस देश को जोड़कर रखा है। हम ऋणी है संविधान सभा के उन सभी महानुभावों के जो एक दूसरे के विरोधी थे, किन्तु उन्होंने समय से समझौता कर संविधान निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। अगर वें महानुभाव हठधर्मिता अपनाते तो भारत अनेक टुकडों में बटा हुआ नजर आता । एक राष्ट्र-एक देश बनाने के दृढ संकल्प का ही परिणाम है हमारा संविधान। आज हम उसी संविधान के प्रति अपनी आस्था खो बैठे हैं। आरक्षण का जिन्न अनुसूचित जाति जनजाति पिछड़ा वर्ग के लोगों को ऐसे ही नही मिल गया है। जिसे आंदोलन के जरिये समाप्त किया जा सकता हो। आरक्षण को समाप्त किया जाना अनुसूचित जाति जनजाति पिछडे़ वर्ग के शोषितों के साथ न्याय नहीं होगा। इतिहास पर नजर डाली जाय तो डॉ0.अम्बेडकर ने शोषित वर्ग की समस्याओं को ब्रिटिश सरकार के सामने रखा था....और उनके लिए विशेष सुविधाएं प्रदान किये जाने की मांग की...डॉ.अम्बेडकर की तर्कसंगत बातें मानकर ब्रिटिस सरकार ने शोषित वर्ग को विशेष सुविधाएं देने की बात मान ली और 1927 में साइमन कमीशन भारत आया।
कुछ लोगों को साइमन कमीशन का भारत आना रास नहीं आया। साइमन कमीशन के भारत आने पर डॉ0 अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार के सामने स्पष्ट किया कि अस्पृश्यों का हिन्दुओं से अलग अस्तित्व है...वे गुलामों जैसा जीवन जी रहे हैं, इनको न तो सार्वजनिक कुओं से पानी भरने की इजाजत है न ही पढ़ने लिखने का अधिकार । पांच वर्ष तक निरन्तर संघर्ष की सीड़ी चढ़ते-चढ़ते 1932 में रॉमसे मैक्डोनल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के लिए तत्कालीन योजना की धोषणा की इसे कम्यूनल एवार्ड के नाम से जाना गया। इस अवार्ड में अछूत कहे जाने वाले समाज को दुहरा अधिकार मिला.....प्रथम वे सुनिश्चित सीटों की आरक्षित व्यवस्था में अलग चुनकर जाएंगे....और दूसरा दो वोटों का अधिकार...एक वोट आरक्षित सीट के लिए और दूसरा अनारक्षित सीट के लिए...पर कुछ लोगों को यह रास नहीं आया और इसके बदले देश में आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने हेतु पूना पैक्ट पर समझौता हो गया।
समय बदला और धीरे धीरे आरक्षण की व्यवस्था ने उस शोषित वर्ग को सीधा लाभ पहुंचाना शुरू ही किया कि आज फिर आरक्षण विरोधी स्वर मुखर हो गये हैं। और जातिगत आरक्षण व्यवस्था को समाप्त किए जाने की आवाजें हर गली और हर मोहल्ले से आनी शुरू हो गयी हैं। तर्क बस इतना है कि आज भी शोषित वर्ग आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाया है। ठीक है यदि आरक्षण का लाभ अनुसूचित जाति जनजाति पिछड़ा वर्ग को नहीं मिला तो फिर विरोध के सुर क्यों उठ रहे हैं? जातिगत आरक्षण की व्यवस्था ने ही शोषित और वंचित वर्ग को सीधा लाभ पहुंचाया है। अब आर्थिक आधार पर आरक्षण मांगने की बात कहां तक सही है यह तो वक्त ही बता पाएगा। पर इसकी क्या गारंटी है कि आर्थिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण से उस शोषित और वंचित वर्ग को सीधा लाभ मिल मिलने लगेगा जो वर्ग आज तक शासन की सुविधाओं से वंचित है? सवाल यह भी है कि आजादी के 68 सालों बाद भी अनुसूचित जाति और जनजाति पर होने वाले अत्याचारों में कमीं नहीं आई है। आरक्षण समाप्त करने पर क्या इस वर्ग हो रहे अत्याचारों पर लगाम लग पाएगी?
या फिर दबंगों की दबंगई इस वर्ग से उस हथियार को भी छुडा लेना चाहती है जो इस वर्ग की हिफाजत कानून की किताबों की इबारत बन कर कर रहा है? आरक्षण खत्म करने के परिणाम दूरगामी किसी भी सूरत में नहीं हो सकते । फिर क्यों ऐसी मुहिम समाज के उस वर्ग के द्वारा छेड़ी जा रही है? आरक्षण खत्म करने की आवाजें सुखदायी जरूर होंगी पर इन आवाजों के पीछे वर्ण व्यवस्था को खत्म करने संबंधी आवाजें आगे क्यों नहीं आ रहीं हैं?

शनिवार, 2 मई 2015

विखण्‍ड़ित होते कुटुम्‍ब, परिवार ।

विखण्ड़ि‍त होते कुटुम्ब,परिवार !


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               दोस्तों, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भारत गांवों में बसता है’ लेकिन यह कथन कहने तक सीमित रह गया है। जिसकी तस्वीर दूर की कल्पना से नजर नहीं आ सकती है। प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत के निर्माण तक भारत के गांवों की तस्वीर गांव की गलियों में ही मिल सकती है। आज भी भारत के ज्यादातर गावों में तीन-चार पीडि़यों से रिस्ते के अमूल्य बंधन एक दूसरे से बंधे हैं। पीड़ी-दर पीड़ी भावनाओं की अटूट मिशाल एक दूसरे से लिपटी देखी जा सकती है। यही पीड़ी आज विकास की अपार संभावनाओं के बीच भारत के गांवों से शहर की ओर पलायन कर रही है। भौतिक सुख सुविधाओं की चाह में ग्रामीण आवादी शहरों की घनी आवादी की रौनक बनती जा रही है। वैसे तो भारत की संस्कृति परिवार रूपी गठरी से बंधी रहने के नाम से जानी जाती है पर आधुनिक युग में छोटी-छोटी बातों को लेकर विखण्डि़त होते परिवार भारतीय परिवारों की अंदरूनी समस्या बन गई है। 
               गांवों की फुरसत की आजादी से शहर की ओर भागते परिवार आधुनिकता की चकाचौंध में भागमभाग की चिकनी सड़कों पर रोज फिसलते दिखाई दे रहें हैं। जो भारत के हर घर की कहानी बनते जा रहें हैं। एक तरफ रोज टूटते परिवार चिन्ता का विषय तो है हीं पर समाधान के विषय क्यों नहीं होते हैं? भले ही भारत में कई स्वंसेवी संस्थाऐं परिवार परामर्श केन्द्र चला रहीं हो पर विखण्डि़त होते परिवार के लोगों पर वस किसी का नहीं चलता है। भारत के सात लाख गांवों से ही मिलकर भारत की शहरी सभ्यता का निर्माण हुआ है। भारतीय सभ्यता के ठेकेदार तो लगे हाथ यह भी कह देते हैं कि ग्रामीण आवादी को मुहैया होती शहरी सुख सुविधाओं और आधुनिकता ने ही भारत के घरों में बसने वाली स्नेह, प्यार और अपनेपन की संस्कृति के ऊपर कुठाराघात किया है। जिसका परिणाम आज विखण्डि़त होते परिवारों के रूप में देखने को मिल रहा है। भारतीय सभ्यता में कुटुंब परिवार का मूल्य सबसे बड़ा माना गया है। 
              कुटुंब ही इस पृथ्वी की सांसरिक गतिविधियों का संचालन आधुनिक काल से करता चला आ रहा है। कुटुंब की एकता, परिवार की एकता एवं समरूपता इस पृथ्वी का संचालन कर रही है।अहम बात तो यह है कि रोजमर्रा में घटने वाली घटनाओं के पीछे परिवार की वह गठरी बंधी है जहां अकेलेपन की दीवार छोटी दिखाई देती है। भारतीय सभ्यता में गांवों की झलक देखी जाय तो निश्चित रूप कुटुम्ब परिवार की वह कड़ी आपस में एक दूसरे से जुड़ी नजर आऐगी मानो फूलों की माला आज भी मुरझाई नहीं हो। पर शहरी सभ्यता आधुनिकता की दौड़ में अकेले रहना ज्यादा पसंद करती है। इसी सभ्यता के बीच टूट जाती है है वह आशा जो बंधे हुऐ परिवार ने एक दूसरे से लगाये रखी है। 
               भारत को संस्कारों की जननी कहने में कतई संकोच नहीं है क्यों कि भारतीय सभ्यता के एक कुटुंब से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि कुटुम्ब परिवार रूपी एक माला है, जो कि परिवारिक रूप में हमें दिनचर्या के माध्यम से दिखाई पढ़ती है।यही परिवार की माला कुटुंब की माला एक कच्चे धागे से बनी है, उस कच्चे धागे में विभिन्न प्रकार के रंगों के फूल सूत्राधार में बंधे हैं, कहने का मतलब यह है कि अगर इस कुटुंब रूपी माला का कच्चा धागा यह कहे कि मेरे ऊपर यह माला बंधी है, मेरे अस्तित्व से इस माला का निर्माण हुआ है। और अलग-अलग रंगों के फूल यह कहें कि हम नहीं होते तो यह माला कैसे बनती अर्थात सही मायने में देखा जाये तो माला का निर्माण कच्चे धागे ओर विभिन्न रंगों व फूलों के मिलन से हुआ है। तब जाकर इस माला का निर्माण अथवा इस परिवार का निर्माण हुआ है। सभी फूलों को यह मालूम है कि हम जिससे बंधे है वह एक कच्चा धागा है अगर हम थोड़ा भी झटका दे देंगे तो यह कुटुंब रूपी माला टूट जायेगी।अर्थात कहने का मतलब यह है कि जिस माला में जिस कुटुंब में अलग-अलग रंग अलग-अलग सोच के लोग एंव फूल रहते हैं जिनसे मिलकर एक कुटुंब का निर्माण हुआ है। उन्हें कभी भी यह सोचना नहीं चाहिऐ कि में लाल रंग का फूल हूं मेरी खुशबू अच्छी है, और किसी को यह भी नहीं सोचना चाहिए कि में पीले रंग का फूल हूं मेरी खुशबू अच्छी है, मैं मानता हूं कि खुशबू तो अच्छी है पर यह जानना भी जरूरी है कि हम जिस धागे से बंधे है वह कच्चा धागा है, अगर सभी फूलों ने यह सोच लिया अर्थात परिवार के सभी सदस्यों ने यह सोच लिया तो उस कुटुंब रूपी माला का अन्त कभी नहीं होगा। बहरहाल हमें यह अच्छी तरह मालूम है कि कुटुम्ब परिवार में अपने को श्रेष्ठ साबित करने से ही कुटुम्ब रूपी माला निरन्तर टूट रही है, अर्थात अपने गुणों का गुणगान कर दूसरे के प्रति उसे नीचा दिखाने की भावना ही भारत में रोज टूटते परिवारों की कहानी बन रही है। 
             भारत की संस्कृति कुटुम्ब और परिवार से चलने वाले क्रियाकलापों की शैली रही है। जो किसी न किसी रूप में परिवार की गतिविधियों में व्याप्त है। भारतीय सभ्यता में रिस्तों की डोर अटूट मानी जाती है, जिसमें प्यार और स्नेह का भरपूर रंग चढ़ा रहता है, उस रंग की सुगंध उन लोगों को भी मोहित कर देती है जिन लोगों पर इन रिस्तों की डोर की छाया थोड़ी भी पढ़ जाती है। पर आधुनिक युग में जीवन जीने के तरीके इन परिवार और कुटुम्ब रूपी माला को हर रोज तोड़ रहे हैं।जिसका असर माँ-बाप भाई-बहन चाचा-चाची ताऊ और ताई से होती दूरियों में झलकता है। रिस्तों की डोर तो नाजुक होती ही है, जरा सा भार पढ़ने पर टूटने से रोका नहीं जा सकता है। घर को प्यार का मंदिर कहा जाता है जंहा माता पिता से मिलता अपार प्यार और स्नेह जीवन जीने के तरीकों को और सुगन्धित कर देता है। जिसकी खुशबू उसी रूप में घर के बाहर भी दिखाई देती है। भारत के घरों में मिलने वाली संस्कार की पूंजी अमूल्य है जिसका कौई मौल नहीं है, फिर हम यह सब भूल कर सुखमयी संस्कृति को एक दूसरे से अलग होकर विखण्डि़त कर रहे हैं आखिर क्यों? क्या शहरी सभ्यता और ब्रान्डेड कपड़े ने उस अपार प्यार को पूरी तरह से ढ़क दिया जिसका परिणाम विखण्डि़त होते परिवारों के रूप में हमको भुगतना पढ़ रहा है। कुटुम्ब परिवार के बिना जीवन जीने की परिभाषाऐं अधूरी होती जा रहीं है। अकेलेपन की संस्कृति हमारे देश में कहां से आई है इसका जवाब किसी के पास नहीं है? कुटुम्ब परिवार का नाम सुनने को तो मनमोहक लगता है पर वर्तमान परिवेश की आधुनिक पीड़ी ने कुटुम्ब परिवार की मोहकता का गला धोंट के रख दिया है। एक दूसरे से ज्यादा कमाने और काम करने के अहम ने कुटुम्ब परिवार रूपी लीला का अंत कर दिया है। 
              आखिर कब तक हमारे कुटुम्ब परिवार के लोग एक दूसरे से विखण्डित होते रहेंगे? यह अब समझ के परे हो गया है। जरा-जरा सी बातों पर अपनों की अपनों पर वेदनाओं के तीर सीधे कुटुम्ब परिवार की माला को कमजोर करने में लगे हुऐ हैं।और सवेंदनाओं की दवाई अपनों के तीर से लगे घाव को भरने में भी असमर्थ हो रही है। परिणामस्वरूप देश का हर आंगन आज बट चुका है।
कुमार अनिल पारा,
anilpara123@gmail.com